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lahar sAgar kA _ लहर सागर का

lahar sAgar kA - लहर सागर का नहीं श्रृंगार

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता











लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।

गन्ध कलिका का नहीं उद्गार,
उसकी विकलता है;
फूल मधुवन का नहीं गलहार,
उसकी विकलता है;
कोकिला का कौन-सा व्यवहार,
ऋतुपति को न भाया?
कूक कोयल की नहीं मनुहार,
उसकी विकलता है।

गान गायक का नहीं व्यापार,
उसकी विकलता है;
राग वीणा की नहीं झंकार,
उसकी विकलता है;
भावनाओं का मधुर आधार
सांसो से विनिर्मित,
गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
उसकी विकलता है।

- हरिवंशराय बच्चन
संग्रह: आकुल अंतर

sAgar mughE apnE_सागर मुझे अपने

sAgar mughE apnE_सागर मुझे अपने

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता










सागर मुझे अपने
सीने पर बिठाये रखता है
अपनी लहरों के फन पर

उसने खुद ही उठा लिया था मुझे
तट पर अकेला पाकर
मैं ढूँढ़ रहा था शब्द
उसकी गहराई के लिए
बार-बार चट्टानों से टकराकर
फेन सी पसरती उसकी
लहरों के लिए
जीवन के प्रति उसकी
अनंत आत्मीयता के लिए

मैं लौटना नहीं चाहता था
फिर अपने शहर में
लहरें बढ़ती तो छोड़ देता
खुद को उनके साथ
फेंक देतीं वे मुझे
खुरदरी, नुकीली चट्टानों पर
लौटतीं तो दौड़ पड़ता
उनके पीछे-पीछे

मछलियाँ भी होतीं
मेरे साथ इस खेल में
बिल्कुल मेरे वहां होने से अनजान
भीगी रेत पर फिसलती हुईं

अच्छा लगता मुझे
समुद्र के साथ खेलना
डर नहीं लगता
कि वह मुझे डुबो सकता है
वह मुझे पत्थरों पर
पटक कर मार सकता है
मुझे झोंक सकता है
भूखी शार्क के जबड़े में

मैं सम्मोहित-सा
देखता रहता ज़मीन पर
बिछे आसमान को
हवा के झोंकों के साथ
बहते, लहराते हुए
सुबह उसके गर्भ से
निकलता ठंडा सूरज
और दिन भर जलकर
अपने ही ताप से व्याकुल
थका हुआ बेचारा
अपना रथ छोड़
सागर में उतर जाता चुपचाप

सागर के पास होकर
सागर ही हो जाता मैं
विशाल और असीम
मेरे भीतर होती लहरें
सीपियाँ, मछलियां, मूंगे
और वह सब कुछ
जो डूब गया इस
अप्रतिहत जलराशि में
समय के किसी अंतराल में

और तब सागर दहाड़ता
मेरी ही आवाज में
सुनामी आती मेरे भीतर
चक्रवात की तरह
गरजने लगता मेरा मन
तट से दूर तक की
जमीन को निगलने
की चाह से भरपूर
हवाओं की बाँह थामे
उछलता आसमान की ओर
ज्वालामुखी का रक्ततप्त
लावा बहने लगता मेरी नसों में
खदबदाते खून की तरह
धड़कने लगता मैं
समूचा हृदय बनकर

खामोश होता तो
सुनता मुझे अपने भीतर
पूछता नहीं मुझसे
मेरे होने का मतलब
उसे पता होता
मुझे कुछ नहीं चाहिए
सागर से, उसकी सत्ता से
उसकी अपराजेयता से

सागर को आखिर क्या
चाहिए सागर से

- सुभाष राय

madhur hai strOt_मधुर हैं स्रोत

madhur hai strOt_मधुर हैं स्रोत

Poetry on Stream :: झरना पर कविता

Jharna (poetry)Jaya shankar Prasad :: झरना (कविता) / जयशंकर प्रसाद



मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी 
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी 
मनोहर झरना। 

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना 
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी 
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी 

कल्पनातीत काल की घटना 
हृदय को लगी अचानक रटना 
देखकर झरना। 

प्रथम वर्षा, से इसका भरना 
स्मरण हो रहा शैल का कटना 
कल्पनातीत काल की घटना 

कर गई प्लावित तन मन सारा 
एक दिन तब अपांग की धारा 
हृदय से झरना- 

बह चला, जैसे दृगजल ढरना। 
प्रणय वन्या ने किया पसारा 
कर गई प्लावित तन मन सारा 

प्रेम की पवित्र परछाई में 
लालसा हरित विटप झाँई में 
बह चला झरना। 

तापमय जीवन शीतल करना 
सत्य यह तेरी सुघराई में 
प्रेम की पवित्र परछाई में॥