Sumitranandan Pant - सुमित्रानंदन पंत



पूरा नाम    : सुमित्रानंदन पंत
अन्य नाम  : गुसाईं दत्त
जन्म         : 20 मई 1900
जन्म भूमि : कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत
मृत्यु         : 28 दिसंबर, 1977
मृत्यु स्थान : इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
पिता        : गंगादत्त
कर्म भूमि  : इलाहाबाद
कर्म-क्षेत्र   : अध्यापक, लेखक, कवि
मुख्य रचनाएँ :
वीणा, पल्लव, चिदंबरा, युगवाणी,लोकायतन, युगपथ, स्वर्णकिरण, कला और बूढ़ा चाँद आदि
विषय       : गीत, कविताएँ
भाषा        : हिन्दी
विद्यालय    : जयनारायण हाईस्कूल, म्योर सेंट्रल कॉलेज
पुरस्कार-उपाधि :
ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म भूषण,साहित्य अकादमी पुरस्कार , 'लोकायतन' पर सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
नागरिकता  : भारतीय
आंदोलन     : रहस्यवाद व प्रगतिवाद
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सुमित्रानंदन पंत (२० मई १९०० - २८ दिसम्बर १९७७) हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है।उनका जन्म अल्मोड़ा में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भंवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।

जीवन परिचय

पंत का जन्म अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में २० मई १९०० ई. को हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया। उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। उनका प्रारंभिक नाम गुसाई दत्त रखा गया। वे सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। १९१८ में वे अपने मँझले भाई के साथ काशी आ गए और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण कर वे इलाहाबाद चले गए। उन्हें अपना नाम पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने अपना नया नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया। यहाँ म्योर कॉलेज में उन्होंने बारवीं में प्रवेश लिया। १९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने के आह्वान पर उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे।इलाहाबाद में वे कचहरी के पास प्रकृति सौंदर्य से सजे हुए एक सरकारी बंगले में रहते थे। उन्होंने इलाहाबाद आकाशवाणी के शुरुआती दिनों में सलाहकार के रूप में भी कार्य किया। उन्हें मधुमेह हो गया था। उनकी मृत्यु २८ दिसम्बर १९७७ को हुई।

साहित्य सृजन

सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था। १९१८ के आसपास तक वे हिंदी के नवीन धारा के प्रवर्तक कवि के रूप में पहचाने जाने लगे थे। इस दौर की उनकी कविताएं वीणा में संकलित हैं। १९२६-२७ में उनका प्रसिद्ध काव्य संकलन ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ। कुछ समय पश्चात वे अपने भाई देवीदत्त के साथ अल्मोडा आ गये। इसी दौरान वे मार्क्स व फ्रायड की विचारधारा के प्रभाव में आये। १९३८ में उन्होंने ‘रूपाभ” नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला। शमशेर, रघुपति सहाय आदि के साथ वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुडे रहे। वे १९५५ से १९६२ तक आकाशवाणी से जुडे रहे और मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया। उनकी विचारधारा योगी अरविन्द से प्रभावित भी हुई जो बाद की उनकी रचनाओं में देखी जा सकती है। “वीणा” तथा “पल्लव” में संकलित उनके छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। “युगांत” की रचनाओं के लेखन तक वे प्रगतिशील विचारधारा से जुडे प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक उनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखरस्वरोंकी उदघोषणा करती है। उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पडाव हैं – प्रथम में वे छायावादी हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। १९०७ से १९१८ के काल को स्वयं उन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। इस काल की कविताएँ वीणा में संकलित हैं। सन् १९२२ में उच्छवास और १९२८ में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य कृतियाँ हैं - ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम आदि। उनके जीवनकाल में उनकी २८ पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं। पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किंतु उनकी सबसे कलात्मक कविताएं 'पल्लव' में संकलित हैं, जो १९१८ से १९२५ तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है।

विचारधारा

उनका संपूर्ण साहित्य 'सत्यम शिवम सुंदरम' के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और विचारशीलता के। उनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत हैं। पंत परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी व प्रयोगवादी आलोचकों के सामने कभी नहीं झुके। उन्होंने अपनी कविताओं में पूर्व मान्यताओं को नकारा नहीं। उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को 'नम्र अवज्ञा' कविता के माध्यम से खारिज किया। वह कहते थे 'गा कोकिला संदेश सनातन, मानव का परिचय मानवपन।'

पुरस्कार व सम्मान

हिंदी साहित्य सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968), साहित्य अकादमी, तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौशानी में उनके पुराने घर को जिसमें वे बचपन में रहा करते थे, सुमित्रानंदन पंत वीथिका के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है। उनका देहांत १९७७ में हुआ।

स्मृति विशेष

उत्तराखंड में कुमायुं की पहाड़ियों पर बसे कउसानी गांव में, जहाँ उनका बचपन बीता था, वहां का उनका घर आज 'सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका' नामक संग्रहालय बन चुका है। इस में उनके कपड़े, चश्मा, कलम आदि व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई हैं। संग्रहालय में उनको मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्तिपत्र, हिंदी साहित्य संस्थान द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्तिपत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं लोकायतन, आस्था, रूपम आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियां भी सुरक्षित रखी हैं। कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन से किये गये उनके पत्र व्यवहार की प्रतिलिपियां भी यहां मौजूद हैं। संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रत्येक वर्ष पंत व्याख्यान माला का आयोजन होता है। यहाँ से 'सुमित्रानंदन पंत व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है। उनके नाम पर इलाहाबाद शहर में स्थित हाथी पार्क का नाम सुमित्रा नंदन पंत उद्यान कर दिया गया है।

mittI kA tan mastI kA man - मिट्टी का तन, मस्ती का मन

mittI kA tan mastI kA man
मिट्टी का तन, मस्ती का मन

pyAlA/Harivanshrai Bachchan
प्याला / हरिवंशराय बच्चन

जाने माने साहित्यकार श्री हरिवंशराय बच्चन अक्सर अपने आप को
मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन - मेरा परिचय,
कह कर अपना परिचय देते थे ।





मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

१.

कल काल-रात्रि के अंधकार

में थी मेरी सत्ता विलीन,

इस मूर्तिमान जग में महान

था मैं विलुप्त कल रूप-हीं,

कल मादकता थी भरी नींद

थी जड़ता से ले रही होड़,

किन सरस करों का परस आज

करता जाग्रत जीवन नवीन ?

मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ–

किस कुम्भकार का यह निश्चय ?

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

२.

भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,

था भ्रमित हो रहा आसमान,

उस कलावान का कुछ रहस्य

होता फिर कैसे भासमान.

जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,

थिर है सब मेरे आसपास;

समझा था सबको भ्रमित किन्तु

भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.

भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,

क्या ज्ञान करेगा वह संचय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

३.

जो रस लेकर आया भू पर

जीवन-आतप ले गया छिन,

खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप

हो जग की ज्वाला के अधीन;

मैं चिल्लाया ‘क्यों ले मेरी

मृदुला करती मुझको कठोर ?’

लपटें बोलीं,’चुप, बजा-ठोंक

लेगी तुझको जगती प्रवीण.’

यह,लो, मीणा बाज़ार जगा,

होता है मेरा क्रय-विक्रय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

४.

मुझको न ले सके धन-कुबेर

दिखलाकर अपना ठाट-बाट,

मुझको न ले सके नृपति मोल

दे माल-खज़ाना, राज-पाट,

अमरों ने अमृत दिखलाया,

दिखलाया अपना अमर लोक,

ठुकराया मैंने दोनों को

रखकर अपना उन्नत ललाट,

बिक,मगर,गया मैं मोल बिना

जब आया मानव सरस ह्रदय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

५.

बस एक बार पूछा जाता,

यदि अमृत से पड़ता पाला;

यदि पात्र हलाहल का बनता,

बस एक बार जाता ढाला;

चिर जीवन औ’ चिर मृत्यु जहाँ,

लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;

जो फिर-फिर होहों तक जाता

वह तो बस मदिरा का प्याला;

मेरा घर है अरमानो से

परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

६.

मैं सखी सुराही का साथी,

सहचर मधुबाला का ललाम;

अपने मानस की मस्ती से

उफनाया करता आठयाम;

कल क्रूर काल के गलों में

जाना होगा–इस कारण ही

कुछ और बढा दी है मैंने

अपने जीवन की धूमधाम;

इन मेरी उलटी चालों पर

संसार खड़ा करता विस्मय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

७.

मेरे पथ में आ-आ करके

तू पूछ रहा है बार-बार,

‘क्यों तू दुनिया के लोगों में

करता है मदिरा का प्रचार ?’

मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे

अवकाश कहाँ इतना मुझको,

‘आनंद करो’–यह व्यंग्य भरी

है किसी दग्ध-उर की पुकार;

कुछ आग बुझाने को पीते

ये भी,कर मत इन पर संशय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

८.

मैं देख चुका जा मसजिद में

झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,

पर अपनी इस मधुशाला में

पीता दीवानों का समाज;

यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रम,

कह भी दूँ,तो क्या सबूत;

कब कंचन मस्जिद पर बरसा,

कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ?

यह चिर अनादि से प्रश्न उठा

मैं आज करूँगा क्या निर्णय ?

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

९.

सुनकर आया हूँ मंदिर में

रटते हरिजन थे राम-राम,

पर अपनी इस मधुशाला में

जपते मतवाले जाम-जाम;

पंडित मदिरालय से रूठा,

मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,

मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;

मुझको मस्ती से महज काम.

भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों

मन को बहलाने के अभिनय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

१०.

संसृति की नाटकशाला में

है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,

है पड़ा तुझे बनना प्याला,

होना मदिरा का अभिमानी;

संघर्ष यहाँ किसका किससे,

यह तो सब खेल-तमाशा है,

यह देख,यवनिका गिरती है,

समझा कुछ अपनी नादानी !

छिप जाएँगे हम दोनों ही

लेकर अपना-अपना आशय.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !

११.

पल में मृत पीने वाले के

कल से गिर भू पर आऊँगा,

जिस मिट्टी से था मैं निर्मित

उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;

अधिकार नहीं जिन बातों पर,

उन बातों की चिंता करके

अब तक जग ने क्या पाया है,

मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा ?

मुझको अपना ही जन्म-निधन

‘है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.

मिट्टी का तन,मस्ती का मन,

क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !