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ThukarAdO yA pyAr karO_ठुकरा दो या प्यार करो

ThukarAdO yA pyAr karO_ठुकरा दो या प्यार करो

subhadrA kumarI chouhAn :: सुभद्राकुमारी चौहान









देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं 
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं 

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं 
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं 

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी 
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी 

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं 
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं 

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं 
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं 

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी 
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी 

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो 
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो 

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ 
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ 

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो 
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

rAshtrIya pakshI mOr _ राष्‍ट्रीय पक्षी मोर

rAshtrIya pakshI mOr _ राष्‍ट्रीय पक्षी मोर

National Symbols of India :: भारत के राष्ट्रीय चिन्ह









1) मोर एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक तथा शान वाला पक्षी है।
2) भारत सरकार ने 26 जनवरी, 1963 को इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया।
3) कवि कालिदास ने भी (छठी शताब्दी) इसे उस जमाने में राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा दिया था।
4) देवी-देवताओं से सम्बन्ध होने के कारण हिन्दू समाज इसे दिव्य पक्षी मानता है ।
5) मोर देवताओं के सेनापति और शिव के पुत्र कार्तिकेय का वाहन है ।
6) मोर के सौन्दर्य से प्रभावित होकर शाहजहां ने एक मयूरासन बनवाया ।
7) इसकी दो प्रजातियां हैं-
नीला या भारतीय मोर (पैवो क्रिस्टेटस), जो भारत और श्रीलंका (भूतपूर्व सीलोन) में पाया जाता है।
हरा या जावा का मोर (पि. म्यूटिकस), जो म्यांमार (भूतपूर्व बर्मा) से जावा तक पाया जाता है।

rAshtrIy chihn_tirangA_राष्ट्रीय चिह्न_तिरंगा

rAshtrIy chihn_tirangA_राष्ट्रीय चिह्न_तिरंगा

National Symbols of India :: भारत के राष्ट्रीय चिन्ह













 1) हमारा राष्ट्रीय ध्वज तीन रंगों से बना है|
 2) इसलिए हम इसे तिरंगा भी कहते हैं।
 3) इसमें सबसे ऊपर गहरा केसरिया, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे गहरा हरा रंग बराबर अनुपात में है।
 4) ध्‍वज को साधारण भाषा में 'झंडा' भी कहा जाता है।
 5) झंडे की चौड़ाई और लम्‍बाई का अनुपात 2:3 है।
 6) सफ़ेद पट्टी के केंद्र में गहरा नीले रंग का चक्र है, जिसका प्रारूप अशोक की राजधानी सारनाथ में स्थापित सिंह के  शीर्षफलक के चक्र में दिखने वाले चक्र की भांति है।
 7) चक्र की परिधि लगभग सफ़ेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर है।
 8) चक्र में 24 तीलियां हैं।
 9) राष्‍ट्रीय ध्‍वज का डिजाइन 22 जुलाई, 1947 को भारत के संविधान द्वारा अपनाया गया था।
10) राष्‍ट्रीय ध्‍वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है।
11) बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्‍य का प्रतीक है।
12) निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

Adarsh nAgarik_आदर्श नागरिक

Adarsh nAgarik_आदर्श नागरिक

आदर्श नागरिक हमारे समाज के आधार और शोभा हैं । उनमें अनेक गुण होते हैं । इसलिए उनका जीवन और आचरण अनुकरणीय होता है । उन पर सब को गर्व होता है ।
एक समाज, देश या राष्ट्र में सभी प्रकार के नागरिक होते हैं- बहुत अच्छे अच्छे, सामान्य बुरे और बहुत बुरे । अच्छे और आदर्श नागरिक देश को शक्ति-सम्पत्र, समृद्ध, सुखी, शांत और संगठित बनाते हैं । राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक सभी दृष्टियों से इन नागरिकों का बड़ा महत्व होता है ।
जितनी इन आदर्श नागरिकों की संख्या, उतना ही देश भाग्यशाली । सर्वप्रथम एक आदर्श नागरिक बड़ा देशभक्त होता है । देशभक्ति का तात्पर्य है मातृभूमि व देश के लिए अटूट प्रेम, गहरा लगाव और समर्पण । लेकिन सभी नागरिक ऐसे नहीं हो सकते, न होते हैं । अनेक नागरिक राष्ट्रभक्त होने के बजाय देशद्रोही और धोखेबाज होते हैं ।
वे अपने निजी स्वार्थ के लिए कोई भी नीचा काम कर सकते हैं । ऐसे लोगे समाज के लिए कलंक हैं । हमें इन से सदा सावधान रहना चाहिये । ये लोग इंसान के वेश में शैतान होते हैं ; इसके विपरीत आदर्श नागरिक देवता स्वरूप और परम देशभक्त । युद्ध और शांति, दोनों ही स्थितियों में वे देशहित में लगे रहते हैं ।
देश के लिए, राष्ट्रहित के लिए वे अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते । गांधी जी, नेहरू, सुभाष, लाला लाजपतराय, सरदार भगतसिंह आदि आदर्श नागरिकों के शिरोमणि थे । वे देश के जिए और देश के लिए मर गये । उनके लिए राष्ट्रभक्ति से और अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं था । उन्हीं के कारण आज हम स्वतंत्र हैं ।
एक आदर्श नागरिक स्वेच्छा से अनुशासन का पालन करता है । वह देश के नियमों-उपनियमों का पूरी जिम्मेंदारी स निर्वाह करता है । वह अधिकारियों की कानून और व्यवस्था बनाये रखने में सहायता करता है । वह कभी कोई ऐसा काम नहीं करता जो दूसरों के अहित में हो, देश और समाज को हानि पहुंचाने वाला हो ।
वह कभी करों की चोरी नहीं करता तथा अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी निष्ठा से निभाता है । इसके विपरीत बुरे नागरिक करों की चोरी करते हैं, झूठ बोलते हैं, अधिकारियों के साथ सहयोग नहीं करते और संकट के समय आगे नहीं आते ।
एक आदर्श नागरिक अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों दोनों के प्रति सचेत होता है । परन्तु अधिकार से अधिक वह अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरुक होता है । एक आदर्श नागरिक, गृहस्थी, सरकारी कर्मचारी, व्यवसायी आदि किसी भी स्थिति में रहते हुए अपने कर्त्तव्यों का ध्यान रखता है ।
उनका जितना अच्छी तरह से हो सके निर्वाह करता है । वह कभी अपने निजी और संकीर्ण स्वार्थ की नहीं सोचता । वह न कभी कानून को अपने हाथ में लेता और न दूसरों को लेने देता है । अन्य नागरिक भी उससे प्रेरणा और निर्देश प्राप्त कर उस जैसा बनने का प्रयास करते हैं ।
एक आदर्श नागरिक चुनाव में भाग लेकर अपने मत का उचित प्रयोग करता है । वह निडर और पक्षपात-रहित होकर अपना मत उचित व्यक्ति के पक्ष में डालता है । वह अपने मत का मूल्य भलि-भांति समझता है । उसका प्रत्येक कार्य राष्ट्रहित और समाज कल्याण की भावना से प्रेरित होता है । वह दूसरों के साथ सहयोग करता है जिससे कि समाज और अच्छा, संस्कृत, समृद्ध और सुखी बन सके ।
परहित में ही वह अपना हित देखता है । एक आदर्श नागरिक सहनशील, आत्म-संयमी, सत्य बालन वाला, परिश्रमी और स्वावलम्बी होता है । वह किसी पर भार नहीं होता । अपने पैरों पर खड़ा रहकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता है और देश की समृद्धि में सहयोग देता है ।
अन्याय, हिंसा, बेईमानी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार आदि का वह कड़ा विरोध करता है । वह सच्चे अर्थों में नैतिक और धार्मिक भी होता है और दूसरे सभी धर्म और संप्रदायों का आदर काता है । वह दूसरे संप्रदायों के लोगों के उत्सवों आदि में उत्साह से भाग लेता है ।
वह अनेक साथ पूरे भाई-चारे और सहयोग के साथ रहता है । देश के इतिहास, परम्परा, रीति-रिवाज, सांस्कृतिक धरोहर आदि में उसकी पूरी निष्ठा होती है । वह इनमें बड़े गौरव का अनुभव करते हुए उनका संरक्षण करता है, वृद्धि में सहयोग करता है ।

Old Father Story _बूढ़ा पिता कहानी

बूढ़ा पिता _कहानी

वयोवृद्धों के प्रति आदर-सम्मान संबंधी कहानी



किसी गाँव में एक बूढ़ा व्यक्ति अपने बेटे और बहु के साथ रहता था । परिवार सुखी संपन्न था किसी तरह की कोई परेशानी नहीं थी । बूढ़ा बाप जो किसी समय अच्छा खासा नौजवान था आज बुढ़ापे से हार गया था, चलते समय लड़खड़ाता था लाठी की जरुरत पड़ने लगी, चेहरा झुर्रियों से भर चूका था बस अपना जीवन किसी तरह व्यतीत कर रहा था।
घर में एक चीज़ अच्छी थी कि शाम को खाना खाते समय पूरा परिवार एक साथ टेबल पर बैठ कर खाना खाता था । एक दिन ऐसे ही शाम को जब सारे लोग खाना खाने बैठे । बेटा ऑफिस से आया था भूख ज्यादा थी सो जल्दी से खाना खाने बैठ गया और साथ में बहु और एक बेटा भी खाने लगे । बूढ़े हाथ जैसे ही थाली उठाने को हुए थाली हाथ से छिटक गयी थोड़ी दाल टेबल पे गिर गयी । बहु बेटे ने घृणा द्रष्टि से पिता की ओर देखा और फिर से अपना खाने में लग गए।
बूढ़े पिता ने जैसे ही अपने हिलते हाथों से खाना खाना शुरू किया तो खाना कभी कपड़ों पे गिरता कभी जमीन पर । बहु चिढ़ते हुए कहा – हे राम कितनी गन्दी तरह से खाते हैं मन करता है इनकी थाली किसी अलग कोने में लगवा देते हैं , बेटे ने भी ऐसे सिर हिलाया जैसे पत्नी की बात से सहमत हो । बेटा यह सब मासूमियत से देख रहा था ।
अगले दिन पिता की थाली उस टेबल से हटाकर एक कोने में लगवा दी गयी । पिता की डबडबाती आँखे सब कुछ देखते हुए भी कुछ बोल नहीं पा रहीं थी। बूढ़ा पिता रोज की तरह खाना खाने लगा , खाना कभी इधर गिरता कभी उधर । छोटा बच्चा अपना खाना छोड़कर लगातार अपने दादा की तरफ देख रहा था । माँ ने पूछा क्या हुआ बेटे तुम दादा जी की तरफ क्या देख रहे हो और खाना क्यों नहीं खा रहे । बच्चा बड़ी मासूमियत से बोला – माँ मैं सीख रहा हूँ कि वृद्धों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा और आप लोग बूढ़े हो जाओगे तो मैं भी आपको इसी तरह कोने में खाना खिलाया करूँगा ।
बच्चे के मुँह से ऐसा सुनते ही बेटे और बहु दोनों काँप उठे शायद बच्चे की बात उनके मन में बैठ गयी थी क्युकी बच्चा ने मासूमियत के साथ एक बहुत बढ़ा सबक दोनों लोगो को दिया था ।
बेटे ने जल्दी से आगे बढ़कर पिता को उठाया और वापस टेबल पे खाने के लिए बिठाया और बहु भी भाग कर पानी का गिलास लेकर आई कि पिताजी को कोई तकलीफ ना हो ।
नीति नीति : माँ बाप इस दुनियाँ की सबसे बड़ी पूँजी हैं आप समाज में कितनी भी इज्जत कमा लें या कितना भी धन इकट्ठा कर लें लेकिन माँ बाप से बड़ा धन इस दुनिया में कोई नहीं है यही इस कहानी की शिक्षा है|


Photo source:gettyimages

बड़ों के प्रति आदर सम्मान संबंधी कहानी

बड़ों के प्रति आदर सम्मान संबंधी कहानी



रामायण के अनुसार राजा दशरथ की रानी कैकयी ने अपनी दासी मंथरा के बहकावे में आकर राजा से दो वरदान मांगे। पहला भरत को राज्य और दूसरा राम को वनवास। न चाहते हुए भी दशरथ ने राम को वनवास भेज दिया। राम के साथ सीता व लक्ष्मण भी वन में चले गए। राम को वनवास जाता देख अयोध्यावासी उनके पीछे-पीछे तमसा नदी तक आ गए। यहां श्रीराम ने विश्राम किया और रात में जब अयोध्यावासी सो रहे थे, वहां से चले गए। निषादराज गुह ने श्रीराम, सीता व लक्ष्मण को गंगा पार पहुंचाया।
श्रीराम, सीता व लक्ष्मण जिस भी गांव या नगर से निकलते, वहां के लोग उनकी एक झलक पाने के लिए लालायित हो जाते थे और उनका खूब आदर-सत्कार करते। चलते समय सीता इस बात का ध्यान रखती कि गलती से भी श्रीराम के पदचिह्नों पर उनका पैर न रखा जाए। इसलिए वे श्रीराम के दोनों पदचिह्नों के बीच में चलती थीं। लक्ष्मण भी यह देखते हुए चलते कि श्रीराम व सीता दोनों ही के पैरों के निशान पर उनका पैर न पड़े। श्रीराम, सीता व लक्ष्मण जिस भी गांव या नगर से गुजरते, वहां के वासी भक्तिभाव से उनका पूजन करते।
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता।।
सीय राम पद अंक बराएं। लखन चलहिं मगु दाहिने लाएं।।

अर्थात- श्रीराम के चरण चिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीताजी मार्ग में चल रही हैं और लक्ष्मण सीता व श्रीराम दोनों के चरण चिह्नों को बचाते हुए (मर्यादा की रक्षा के लिए) उन्हें दाहिनेे रखकर रास्ता चल रहे हैं।

यात्रा करते हुए श्रीराम ऋषि वाल्मीकि के आश्रम आ गए। ऋषि ने श्रीराम का सम्मान किया और आशीर्वाद भी दिया। श्रीराम के पूछने पर वाल्मीकि ने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर निवास करने की सलाह दी। मुनि के कहने पर श्रीराम ने चित्रकूट में अपनी कुटिया बनाई और सुखपूर्वक रहने लगे।
सीख: 1. पारिवारिक जीवन में मर्यादा का होना बहुत आवश्यक है।
2.छोटे जब बड़ों का आदर करते हैं तभी परिवार आदर्श बन पाता है।

lahar sAgar kA _ लहर सागर का

lahar sAgar kA - लहर सागर का नहीं श्रृंगार

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता











लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।

गन्ध कलिका का नहीं उद्गार,
उसकी विकलता है;
फूल मधुवन का नहीं गलहार,
उसकी विकलता है;
कोकिला का कौन-सा व्यवहार,
ऋतुपति को न भाया?
कूक कोयल की नहीं मनुहार,
उसकी विकलता है।

गान गायक का नहीं व्यापार,
उसकी विकलता है;
राग वीणा की नहीं झंकार,
उसकी विकलता है;
भावनाओं का मधुर आधार
सांसो से विनिर्मित,
गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
उसकी विकलता है।

- हरिवंशराय बच्चन
संग्रह: आकुल अंतर

O sAgar _ ओ सागर

O sAgar! mai tumsE _ ओ सागर ! मैं तुमसे

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता










नदियां,
बहकर आती नदियां,
हेल मेलती, खेल खेलती
नदियां।
सागर,
उनसे बना है सागर ।
विस्तीर्ण, प्रगाढ़, नीला
लहरीला सागर।
सुनो सागर !
ओ सागर !
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।
आओ,
सहज ही लिपट जाओ मुझसे
अपने नेह के भुजबल में
आलिंगनबद्ध कर लो।
श्यामल सागर !
मोती ओर मूंगे के कानों वाले
ओ सागर,
मछली की तड़प लेकर आया हूँ
लौटा न देना।
सागर,
खामोश सागर !
उदास सागर !
नदियां,
बोलती हैं नदियां,
कहाँ है सागर ?
कौन कहे,
कहाँ है सागर !

- माया मृग
संग्रह: ...कि जीवन ठहर न जाए /

sAgar mughE apnE_सागर मुझे अपने

sAgar mughE apnE_सागर मुझे अपने

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता










सागर मुझे अपने
सीने पर बिठाये रखता है
अपनी लहरों के फन पर

उसने खुद ही उठा लिया था मुझे
तट पर अकेला पाकर
मैं ढूँढ़ रहा था शब्द
उसकी गहराई के लिए
बार-बार चट्टानों से टकराकर
फेन सी पसरती उसकी
लहरों के लिए
जीवन के प्रति उसकी
अनंत आत्मीयता के लिए

मैं लौटना नहीं चाहता था
फिर अपने शहर में
लहरें बढ़ती तो छोड़ देता
खुद को उनके साथ
फेंक देतीं वे मुझे
खुरदरी, नुकीली चट्टानों पर
लौटतीं तो दौड़ पड़ता
उनके पीछे-पीछे

मछलियाँ भी होतीं
मेरे साथ इस खेल में
बिल्कुल मेरे वहां होने से अनजान
भीगी रेत पर फिसलती हुईं

अच्छा लगता मुझे
समुद्र के साथ खेलना
डर नहीं लगता
कि वह मुझे डुबो सकता है
वह मुझे पत्थरों पर
पटक कर मार सकता है
मुझे झोंक सकता है
भूखी शार्क के जबड़े में

मैं सम्मोहित-सा
देखता रहता ज़मीन पर
बिछे आसमान को
हवा के झोंकों के साथ
बहते, लहराते हुए
सुबह उसके गर्भ से
निकलता ठंडा सूरज
और दिन भर जलकर
अपने ही ताप से व्याकुल
थका हुआ बेचारा
अपना रथ छोड़
सागर में उतर जाता चुपचाप

सागर के पास होकर
सागर ही हो जाता मैं
विशाल और असीम
मेरे भीतर होती लहरें
सीपियाँ, मछलियां, मूंगे
और वह सब कुछ
जो डूब गया इस
अप्रतिहत जलराशि में
समय के किसी अंतराल में

और तब सागर दहाड़ता
मेरी ही आवाज में
सुनामी आती मेरे भीतर
चक्रवात की तरह
गरजने लगता मेरा मन
तट से दूर तक की
जमीन को निगलने
की चाह से भरपूर
हवाओं की बाँह थामे
उछलता आसमान की ओर
ज्वालामुखी का रक्ततप्त
लावा बहने लगता मेरी नसों में
खदबदाते खून की तरह
धड़कने लगता मैं
समूचा हृदय बनकर

खामोश होता तो
सुनता मुझे अपने भीतर
पूछता नहीं मुझसे
मेरे होने का मतलब
उसे पता होता
मुझे कुछ नहीं चाहिए
सागर से, उसकी सत्ता से
उसकी अपराजेयता से

सागर को आखिर क्या
चाहिए सागर से

- सुभाष राय

sAgar dAdA_सागर दादा

sAgar dAdA_सागर दादा

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता














सागर दादा, सागर दादा,
नदियों झीलों के परदादा।
तुम नदियों को पास बुलाते,
ले गोदी में उन्हें खिलाते।
झीलों पर भी स्नेह तुम्हारा,
हर तालाब तुम्हें है प्यारा।

मेघ तुम्हारे नौकर-चाकर,
वे पानी दे जाते लाकर।
साँस भरी तो ज्वार उठाया,
साँस निकाली भाटा आया।
तुम सबसे हिल-मिल बसते हो,
लहरों में खिल-खिल हँसते हो!

-रामावतार चेतन

tU pyAr kA sAgar hai_तू प्यार का सागर है

tU pyAr kA sAgar hai_तू प्यार का सागर है

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता









तू प्यार का सागर है,
तू प्यार का सागर है,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,

लौटा जो दिया तूने,
लौटा जो दिया तूने,
चले जाएंगे जहां से हम,
चले जाएंगे जहां से हम,
तू प्यार का सागर है,
तू प्यार का सागर है,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,
तू प्यार का सागर है,

घायल मन का पागल पन्छी,
उड़ने को बेकरार,
उड़ने को बेकरार,
पंख है कोमल आंख है धुंधली,
जाना है सागर पार,
जाना है सागर पार,
अब तू ही इसे समझा,
अब तू ही इसे समझा,
राह भूले थे कहाँ से हम,
राह भूले थे कहाँ से हम,
तू प्यार का सागर है,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,
तू प्यार का सागर है,

इधर झूम के गाये ज़िन्दगी,
उधर है मौत खडी,
उधर है मौत खडी,
कोई क्या जाने कहाँ है सीमा,
उलझन आन पडी,
उलझन आन पडी,
कानों मे जरा कह दे,
कानों मे जरा कह दे,
कि आये कौन दिशा से हम,
कि आये कौन दिशा से हम,
तू प्यार का सागर है,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,
तेरी एक बून्द के प्यासे हम,
तू प्यार का सागर है,
तू प्यार का सागर है |

sAgar kI lahar mE_सागर की लहर में

sAgar kI lahar mE_सागर की लहर में

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता
















सागर की लहर लहर में
है हास स्वर्ण किरणों का,
सागर के अंतस्तल में
अवसाद अवाक् कणों का!
यह जीवन का है सागर,
जग-जीवन का है सागर;
प्रिय प्रिय विषाद रे इसका,
प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका।
जग जीवन में हैं सुख-दुख,
सुख-दुख में है जग जीवन;
हैं बँधे बिछोह-मिलन दो
देकर चिर स्नेहालिंगन।
जीवन की लहर-लहर से
हँस खेल-खेल रे नाविक!
जीवन के अंतस्तल में
नित बूड़-बूड़ रे भाविक!

- सुमित्रानंदन पंत / संग्रह: गुंजन /
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२

pahalI bAr dEkhA_पहली बार देखा झरना

pahalI bAr dEkhA_पहली बार देखा झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता















पहली ही पहली बार हमने-तुमने देखा झरना
देखा कैसे जल उठता है गिरता है पत्थर पर
कैसे धान के लावों जैसा फूट-फूटकर झर पड़ता चट्टानों पर

कितना ठंडा घना था कितना जल वह
अभी-अभी धरती की नाभि खोल जो बाहर आया
कौन जानता कितनी सदियों वह पृथ्वी की नस-नाड़ी में घूमा
जीवन के आरम्भ से लेकर आज अभी तक
धरती को जो रहा भिंगोए
वही पुराना जल यह अपना

पहली ही पहली बार हमने-तुमने देखा झरना--
झरते जल को देख हिला
अपने भीतर का भी
जल ।

संग्रह: अपनी केवल धार / अरुण कमल

hiranI jharnA - हिरनी झरना

hiranI jharnA - हिरनी झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता



तमाम शोरगुल से भरे माहौल में
स्मृतियो की ऊँची पहाड़ी पर टिका
अक्सर वक्त-बेवक्त झरने लगता है
मन के भीतर का झरना
कई-कई जंगलों के बेतरतीब से पेड़ो मुलाक़ात करते
टेबो-घाटी के कई-कई खूबसूरत मोड़ों के सूनेपन
से गुज़रते निहारते उन्हें
आती है दूर से पुकारती हिरनी झरने की आवाज़
अपने करीब और करीब बुलाती हुई
आदिवासी नृत्य के मोहक घेरे में फँसे मन में पसरता
उनके गीतों से टपकता आदिम उल्लास
मुंडारी के बोल न जानने के बावजूद

और तेज होने लगी थी पानी के गिरने की आवाज़
एक ज़ादू के देश में पहुँच गए थे हम
गँवाकर बीते समय की सारी याददाश्त
ऊपर समझदार लड़की की तरह सलीके से
बही जा रही थी पहाड़ी पथ्थरों पर हिरनी नदी

दिखी औचक बदलती हुई पाला
उछल कर कूद पड़ी नीचे की ओर
दौड़ा बचाने को पीछे से आता पानी का रेला
पर वह भागी जाती थी कुलाँचे भरती हिरनी की तरह
सारे अवरोधों को रौंदती-कुचलती

कितना मादक और कितना सुरीला पथ्थरों पर
पानी का संगीत
क़ुदरत ने कैसे किया होगा इस इंद्रजाल का अविष्कार

- संग्रह: सीढ़ियों का दुख / रश्मि रेखा

aur ek jharnA_और एक झरना

aur ek jharnA_और एक झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता
















और एक झरना बहुत शफ़्फ़ाक था,
बर्फ़ के मानिन्द पानी साफ़ था,-
आरम्भ कहाँ है कैसे था वह मालूम नहीं हो:
पर उस की बहार,
हीरे की हो धारा,
मोती का हो गर खेत,
कुन्दन की हो वर्षा,
और विद्युत की छटा तिर्छी पड़े उन पै गर आकर,
तो भी वह विचित्र चित्र सा माकूल न हो।

- बाबू महेश नारायण

pratyAshA jharnA_प्रत्याशा झरना

pratyAshA jharnA_प्रत्याशा झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता

मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं।
आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो-
स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन।
शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से
बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी।
कहते हो-\"उत्कंठा तेरी कपट हैं।\"
नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी-
आधी खुली हुई खिड़की की राह से
जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही ।
दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में,
हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी।
तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे-
वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ।
सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही-
ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा।
क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे
हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना।
किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन!
होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना।
चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से।
हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं।
चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से
बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में।
मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।

- जयशंकर प्रसाद

van mE Ek jharnA bahatA hai_वन में एक झरना बहता है

van mE Ek jharnA bahatA hai_वन में एक झरना बहता है

Poetry on Waterfall(JharnA)::झरना पर कविता


वन में एक झरना बहता है
एक नर कोकिल गाता है
वृक्षों में एक मर्मर
कोंपलों को सिहराता है,
एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे
झरे पत्तों को पचाता है
अंकुर उगाता है ।

मैं सोते के साथ बहता हूँ,
पक्षी के साथ गाता हूँ,
वृक्षों के, कोंपलों के साथ थरथराता हूँ,
और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर
झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ
नए प्राण पाता हूँ ।

पर सबसे अधिक मैं
वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ, मौन हूँ-
क्योंकि वही मुझे बतलाता है कि मैं कौन हूँ,
जोड़ता है मुझ को विराट‍ से
जो मौन, अपरिवर्त है, अपौरुषेय है
जो सब को समोता है ।

मौन का ही सूत्र
किसी अर्थ को मिटाए बिना
सारे शब्द क्रमागत
सुमिरनी में पिरोता है ।

-संग्रह: आँगन के पार द्वार / अज्ञेय

subah kA jharnA_सुबह का झरना

subah kA jharnA_सुबह का झरना

Poetry on Waterfall (jharna)::झरना पर कविता














सुबह का झरना, हमेशा हंसने वाली औरतें
झूटपुटे की नदियां, ख़मोश गहरी औरतें

सड़कों बाज़ारों मकानों दफ्तरों में रात दिन
लाल पीली सब्ज़ नीली, जलती बुझती औरतें

शहर में एक बाग़ है और बाग़ में तालाब है
तैरती हैं उसमें सातों रंग वाली औरतें

सैकड़ों ऎसी दुकानें हैं जहाँ मिल जायेंगी
धात की, पत्थर की, शीशे की, रबर की औरतें

इनके अन्दर पक रहा है वक़्त का आतिश-फिशान
किं पहाड़ों को ढके हैं बर्फ़ जैसी औरतें

- बशीर बद्र (सैयद मोहम्मद बशीर)

patjhar kA jharna dekhO tum_पतझर का झरना देखो तुम

patjhar kA jharna dekhO tum_पतझर का झरना देखो तुम

Poetry on Stream(jharna)::झरना पर कविता


मधु-मादक रंगों ने बरबस,
इस तन का श्रृंगार किया है !
रंग उसी के हिस्से आया,
जिसने मन से प्यार किया है !

वासंती उल्लास को केवल,
फागुन का अनुराग न समझो !
ढोलक की हर थाप को केवल,
मधुऋतु की पदचाप न समझो !!
भीतर से जो खुला उसी ने,
जीवन का मनुहार किया है !
रंग उसी के हिस्से...

पतझर में देखो झरना तुम,
फिर वसंत का आना देखो !
पीड़ा में जीवन की क्रीड़ा,
आँसू में मुस्काना देखो !!
सुख-दुख में यदि भेद नहीं है,
समझो जीवन पूर्ण जिया है !
रंग उसी के हिस्से...

- चंद्र कुमार जैन