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pahalI bAr dEkhA_पहली बार देखा झरना

pahalI bAr dEkhA_पहली बार देखा झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता















पहली ही पहली बार हमने-तुमने देखा झरना
देखा कैसे जल उठता है गिरता है पत्थर पर
कैसे धान के लावों जैसा फूट-फूटकर झर पड़ता चट्टानों पर

कितना ठंडा घना था कितना जल वह
अभी-अभी धरती की नाभि खोल जो बाहर आया
कौन जानता कितनी सदियों वह पृथ्वी की नस-नाड़ी में घूमा
जीवन के आरम्भ से लेकर आज अभी तक
धरती को जो रहा भिंगोए
वही पुराना जल यह अपना

पहली ही पहली बार हमने-तुमने देखा झरना--
झरते जल को देख हिला
अपने भीतर का भी
जल ।

संग्रह: अपनी केवल धार / अरुण कमल

hiranI jharnA - हिरनी झरना

hiranI jharnA - हिरनी झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता



तमाम शोरगुल से भरे माहौल में
स्मृतियो की ऊँची पहाड़ी पर टिका
अक्सर वक्त-बेवक्त झरने लगता है
मन के भीतर का झरना
कई-कई जंगलों के बेतरतीब से पेड़ो मुलाक़ात करते
टेबो-घाटी के कई-कई खूबसूरत मोड़ों के सूनेपन
से गुज़रते निहारते उन्हें
आती है दूर से पुकारती हिरनी झरने की आवाज़
अपने करीब और करीब बुलाती हुई
आदिवासी नृत्य के मोहक घेरे में फँसे मन में पसरता
उनके गीतों से टपकता आदिम उल्लास
मुंडारी के बोल न जानने के बावजूद

और तेज होने लगी थी पानी के गिरने की आवाज़
एक ज़ादू के देश में पहुँच गए थे हम
गँवाकर बीते समय की सारी याददाश्त
ऊपर समझदार लड़की की तरह सलीके से
बही जा रही थी पहाड़ी पथ्थरों पर हिरनी नदी

दिखी औचक बदलती हुई पाला
उछल कर कूद पड़ी नीचे की ओर
दौड़ा बचाने को पीछे से आता पानी का रेला
पर वह भागी जाती थी कुलाँचे भरती हिरनी की तरह
सारे अवरोधों को रौंदती-कुचलती

कितना मादक और कितना सुरीला पथ्थरों पर
पानी का संगीत
क़ुदरत ने कैसे किया होगा इस इंद्रजाल का अविष्कार

- संग्रह: सीढ़ियों का दुख / रश्मि रेखा

pratyAshA jharnA_प्रत्याशा झरना

pratyAshA jharnA_प्रत्याशा झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता

मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं।
आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो-
स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन।
शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से
बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी।
कहते हो-\"उत्कंठा तेरी कपट हैं।\"
नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी-
आधी खुली हुई खिड़की की राह से
जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही ।
दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में,
हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी।
तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे-
वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ।
सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही-
ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा।
क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे
हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना।
किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन!
होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना।
चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से।
हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं।
चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से
बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में।
मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।

- जयशंकर प्रसाद

subah kA jharnA_सुबह का झरना

subah kA jharnA_सुबह का झरना

Poetry on Waterfall (jharna)::झरना पर कविता














सुबह का झरना, हमेशा हंसने वाली औरतें
झूटपुटे की नदियां, ख़मोश गहरी औरतें

सड़कों बाज़ारों मकानों दफ्तरों में रात दिन
लाल पीली सब्ज़ नीली, जलती बुझती औरतें

शहर में एक बाग़ है और बाग़ में तालाब है
तैरती हैं उसमें सातों रंग वाली औरतें

सैकड़ों ऎसी दुकानें हैं जहाँ मिल जायेंगी
धात की, पत्थर की, शीशे की, रबर की औरतें

इनके अन्दर पक रहा है वक़्त का आतिश-फिशान
किं पहाड़ों को ढके हैं बर्फ़ जैसी औरतें

- बशीर बद्र (सैयद मोहम्मद बशीर)