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sAgar dAdA_सागर दादा

sAgar dAdA_सागर दादा

Poetry on Ocean (sAgar)::सागर पर कविता














सागर दादा, सागर दादा,
नदियों झीलों के परदादा।
तुम नदियों को पास बुलाते,
ले गोदी में उन्हें खिलाते।
झीलों पर भी स्नेह तुम्हारा,
हर तालाब तुम्हें है प्यारा।

मेघ तुम्हारे नौकर-चाकर,
वे पानी दे जाते लाकर।
साँस भरी तो ज्वार उठाया,
साँस निकाली भाटा आया।
तुम सबसे हिल-मिल बसते हो,
लहरों में खिल-खिल हँसते हो!

-रामावतार चेतन

pahalI bAr dEkhA_पहली बार देखा झरना

pahalI bAr dEkhA_पहली बार देखा झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता















पहली ही पहली बार हमने-तुमने देखा झरना
देखा कैसे जल उठता है गिरता है पत्थर पर
कैसे धान के लावों जैसा फूट-फूटकर झर पड़ता चट्टानों पर

कितना ठंडा घना था कितना जल वह
अभी-अभी धरती की नाभि खोल जो बाहर आया
कौन जानता कितनी सदियों वह पृथ्वी की नस-नाड़ी में घूमा
जीवन के आरम्भ से लेकर आज अभी तक
धरती को जो रहा भिंगोए
वही पुराना जल यह अपना

पहली ही पहली बार हमने-तुमने देखा झरना--
झरते जल को देख हिला
अपने भीतर का भी
जल ।

संग्रह: अपनी केवल धार / अरुण कमल

pratyAshA jharnA_प्रत्याशा झरना

pratyAshA jharnA_प्रत्याशा झरना

Poetry on jharnA :: झरना पर कविता

मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं।
आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो-
स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन।
शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से
बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी।
कहते हो-\"उत्कंठा तेरी कपट हैं।\"
नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी-
आधी खुली हुई खिड़की की राह से
जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही ।
दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में,
हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी।
तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे-
वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ।
सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही-
ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा।
क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे
हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना।
किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन!
होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना।
चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से।
हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं।
चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से
बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में।
मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।

- जयशंकर प्रसाद

van mE Ek jharnA bahatA hai_वन में एक झरना बहता है

van mE Ek jharnA bahatA hai_वन में एक झरना बहता है

Poetry on Waterfall(JharnA)::झरना पर कविता


वन में एक झरना बहता है
एक नर कोकिल गाता है
वृक्षों में एक मर्मर
कोंपलों को सिहराता है,
एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे
झरे पत्तों को पचाता है
अंकुर उगाता है ।

मैं सोते के साथ बहता हूँ,
पक्षी के साथ गाता हूँ,
वृक्षों के, कोंपलों के साथ थरथराता हूँ,
और उसी अदृश्य क्रम में, भीतर ही भीतर
झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ
नए प्राण पाता हूँ ।

पर सबसे अधिक मैं
वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ, मौन हूँ-
क्योंकि वही मुझे बतलाता है कि मैं कौन हूँ,
जोड़ता है मुझ को विराट‍ से
जो मौन, अपरिवर्त है, अपौरुषेय है
जो सब को समोता है ।

मौन का ही सूत्र
किसी अर्थ को मिटाए बिना
सारे शब्द क्रमागत
सुमिरनी में पिरोता है ।

-संग्रह: आँगन के पार द्वार / अज्ञेय

subah kA jharnA_सुबह का झरना

subah kA jharnA_सुबह का झरना

Poetry on Waterfall (jharna)::झरना पर कविता














सुबह का झरना, हमेशा हंसने वाली औरतें
झूटपुटे की नदियां, ख़मोश गहरी औरतें

सड़कों बाज़ारों मकानों दफ्तरों में रात दिन
लाल पीली सब्ज़ नीली, जलती बुझती औरतें

शहर में एक बाग़ है और बाग़ में तालाब है
तैरती हैं उसमें सातों रंग वाली औरतें

सैकड़ों ऎसी दुकानें हैं जहाँ मिल जायेंगी
धात की, पत्थर की, शीशे की, रबर की औरतें

इनके अन्दर पक रहा है वक़्त का आतिश-फिशान
किं पहाड़ों को ढके हैं बर्फ़ जैसी औरतें

- बशीर बद्र (सैयद मोहम्मद बशीर)