कबीर_भाग-2: पदावली_परिशिष्ट-14

गर्भ बास महि कुल नहिं जाती। ब्रह्म बिंद ते सब उतपाती॥
कहु रे पंडित बामन कब क होये। बामन कहि कहि जनम मति खोये॥
जौ तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया। तौ आन बाट काहे नहीं आया॥
तुम कत ब्राह्मण हम कत शूद। हम कत लोहू तुम कत दूध॥
कहु कबीर जो ब्रह्म बिचारै। सो ब्राह्मण कहियत है हमारे॥61॥

गूड़ करि ज्ञान ध्यान करि महुआ भाठी मन धारा।
सुषमन नारी सहज समानी पीवै पीवन हारा॥

अवधू मेरा मन मतवारा।
उन्मद चढ़ा रस चाख्या त्रिभुवन भया उजियारा।
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महारस भारी॥
काम क्रोध दुइ किये जलेता छूटि गई संसारी॥
प्रगट प्रगास ज्ञान गम्मित सति गुरु ते सुधि पाई।
दास कबीर तासु मदमाता। उचकि न कबहूँ जाई॥62॥

गुरु चरण लागि हम बिनवत पूछत कह जीव पाया॥
कौन काज जग उपजै बिनसै कहहु मांहि समझाया॥
देव करहु दया मोहि मारग लावहु जित भवबंधन टूटै॥
जनम मरण दुख फेड़ कर्म सुख जीव जनम ते छूटै॥
माया फाँस बंधन ही फारै अरु मन सुन्नि न लूके॥
आपा पद निर्वाण न चीन्हा इन बिधि अमिउ न चूके॥
कही न उपजै उपजी जाणे भाव प्रभाव बिहूण।
उदय अस्त की मन बुधि नासी तो सदा सहजि लवलीण॥
ज्यों प्रतिबिंब बिंब कौ मिलिहै उदक कुंभ बिगराना॥
कहु कबीर ऐसा गुण भ्रम भागा तौ मन सुन्न समाना॥63॥

गुरु सेवा ते भगति कमाई। तब इह मानस देही पाई॥
इस देही कौ सिमरहिं देव। सो देही भुज हरि की सेव॥
भजहु गुबिंद भूल मत जाहु। मानस जनम की रही चाहु॥
जब लग जरा रोग नहीं आया। जब लग काल ग्रसी नहिं काया॥
जब लग विकल भई नहीं बानी। भजि लेहि रे मन सारंगपानी॥
अब न भजसि भजसि कब भाई। आवैं अंत न भजिया जाई॥
जो किछु करहिं सोई अवि सारू। फिर पछताहु न पावहु पारू॥
जो सेवक जो लाया सेव। तिनही पाये निरंजन देव॥
गुरु मिलि ताके खुले कपाट। बहुरि न आवै योनी वाट॥
इही तेरा अवसर इह तेरी वार। घट भीतर तू देखु बिचारि॥
कहत कबीर जीति कै हारि। बहुबिधि कह्यौ पुकारि पुकारि॥64॥

गृह तजि बन खंड जाइयै चुनि खाइयै कंदा।
अजहु बिकार न छोड़ई पापी मन मंदा॥
क्यौं छूटा कैसे तरौ भवनिधि जल भारी॥
राखु राख मेरे बीठुला, जन सरनि तुमारी॥
बिषम बिषय बासना तजिय न जाई॥
अनिक यत्न करि राखियै फिरि लपटाई॥
जरा जीवन जोबन गया कछु कीया नीका।
इह जीया निर्मोल को कौड़ी लगि मीका॥
कहु कबीर मेरे माधवा तू सर्वव्यापी॥
तुम सम सरि नाहीं दयाल मो सम सरि पापी॥65॥

गृह शोभा जाकै रे नाहीं। आवत पहिया खूदे जाहि॥
वाकै अंतरि नहीं संतोष। बिन सोहागिन लागे कोष॥
धन सोहागनि महा पबीत। तपे तपीसर डालै चीत॥
सोहागनि किरपन की पूती। सेवक तजि जग तस्यो सूती॥
साधू कै ठाढ़ी दरबारि। सरनि तेरी मोके निस्तारि॥
सोहागनि है अति सुंदरी। पगनेवर छनक छन हरी॥
जौ लग प्रान तऊ लग संगे। नाहिन चली बेगि उठि नंगे॥
सोहागिन भवन त्रौ लीया। दस अष्टपुराण तीरथ रसकीया॥
ब्रह्मा विष्णु महेसर बेधे। बड़ भूपति राजै है छेधे॥
सोहागिन उर पारि न पारि। पाँच नारद कै संग बिधबारि॥
पाँच नारद के मिठवे फूटे। कहु कबीर गुरु किरपा छूटे॥66॥

चंद सूरज दुइ जोति सरूप। जीता अंतरि ब्रह्म अनूप॥
करु रे ज्ञानी ब्रह्म बिचारु। जोति अंतरि धरि आप सारु॥
हीरा देखि हीरै करो आदेस। कहै कबीर निरंजन अलेखु॥67॥

चरन कमल जाके रिदै। बसै सो जन क्यौं डोलै देव।
मानौ सब सुख नवनिधि ताके सहजि जस बोलै देव॥
तब इह मति जौ सब महि पेखै कुटिल गाँठि जब खोलै देव॥
बारंबार माया ते अटकै लै नरु जो मन तौलै देव॥
जहँ उह जाइ तहीं सुख पावै माया तासु न झोलै देव॥
कहि कबीर मेरा मन मान्या राम प्रीति को ओलै देव॥68॥

हरि बिन बैल बिराने ह्नैहै।
चार पाव दुई सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गैहै॥
ऊठत बैठत ठैगा परिहै तब कत मूडलुकेहै॥
फाटे नाक न टूटै का धन कोदौ कौ भूस खैहै॥
सारो दिन डोलत बन महिया अजहु न पेट अघैहै॥
जन भगतन को कही न मानी कीयो अपनो पैहै॥
दुख सुख करत महा भ्रम बूड़ौ अनिक योनि भरमैहै॥
रतन जनम खोयो प्रभु बिसरौं इह अवसर कत पैहैं॥
भ्रमत फिरत तेलक के कपि ज्यों गति बिनु रैन बिंहैहै॥
कहत कबीर राम नाम बिन मुंड धूनै पछितैहै॥69॥

चारि दिन अपनी नौबति चले बजाइ।
इतनकु खटिया गठिया मठिया संगि न कछु लै जाइ।
देहरी बैठी मेहरी रोवै हारे लौ संग माइ॥
मरहट लगि सब लोग कुटुंब मिलि हंस इकेला जाइ॥
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आई॥
कहत कबीर राम को न सिमरहु जन्म अकारथ जाई॥70॥

चोवा चंदन मर्दन अंगा। सो तन जलै काठ के संगा।
इसु तन धन की कौन बड़ाई। धरनि परै उरबारि न जाई॥
रात जि सोवहि दिन करहि काम। इक खिन लेहि न हरि का नाम।
हाथि त डोर मुख खायो तंबोर। मरती बार कसि बांध्यौ चोर॥
गुरु मति रहि रसि हरि गुन गावै। रामै राम रमत सुख पावै॥
किरपा करि के नाम दृढ़ाई। हरि हरि बास सुगंध बसाई॥
कहत कबीर चेते रे अंधा। सत्य राम झूठ सब धंधा॥71॥

जग जीवत ऐसा सूपनौ जैसा जीव सुपन समान।
साचु करि हम गांठ दीनी छोड़ि परम निधान॥
बाबा माया मोह हितु कीन जिन ज्ञान रतन हरि लीन।
नयन देखि पतंग उरझै पसु न देखै आगि॥
काल फास न मुगध चेतै कनि काँमिनि लागि॥
करि बिचारि बिकार परिहरि तुरन तारेन सोइ॥
कहि कबीर जग जीवन ऐसा दुंतिया नहीं कोइ॥72॥

जन्म मरन का भ्रम गया गोविंद लिव लागी।
जीवन सुन्नि समानिया नुरु साखी जागी॥
कासी ते धुनी उपजै धुनि कांसी जाई॥
त्रिकुटी संधि मैं पेखिया घटहू घट जागी॥
ऐसी बुद्धि समाचरी घट माही तियागी॥
आप आप जे जागिया तेज तेज समाना॥
कहु कबीर अब जानिया गोविंद मन माना॥73॥

जब जरिये तब होइ भसम तन रहे किरम दल खाई॥
काची गागरि नीर परतु है या तन की इहै बड़ाई॥
काहे भया फिरतो फूला फूला।
जब दस मास उरध मुख रहता सो दिन कैसे भूला॥
ज्यों मधु मक्खी त्यों सठोरि रसु जोरि जोरि धन कीया॥
मरती बार लेहु लेहु करिये भूत रहन क्यों दीया॥
देहुरी लौ बरी नारि संग भई आगि सजन सुहेला॥
मरघट लौ सब लगे कुटुंब भयो आगै हंस अकेला॥
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ॥
झूठी माया आप बँधाया ज्यों नलनी भ्रमि सुआ॥74॥

जब लग तेल दीवै मुख बाती तब सूझै सब कोई।
तेल जलै बाती ठहरानी सूना मंदर होई॥
रे बौरे तुहि घरी न राखै कोई तूं राम नाम जपि सोई॥
काकी माता पिता कहु काको कौन पुरुष की जोई॥
घट फूटे कोउ बात न पूछै काढ़हु काढ़हु होई॥
देहुरी बैठ माता रोवै खटिया ले गये भाई॥
लट छिटकाये तिरिया रोवै हंस ईकेला जाई॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु भौसागर के ताईं॥
इस बदे सिर जुलम होत है जम नहीं घटै गुसाईं॥75॥

जब लगी मेरी मेरी करै। तब लग काज एक नहि सरै॥
जब मेरी मेरी मिट जाई। तब प्रभु काज सवारहिं आई॥
ऐसा ज्ञान बिचारु मना। हरि किन सिमरहु दुख भंजना॥
जब लगि सिंध रहे बन माहि। तब लग बन फूनई नाहि॥
जब ही स्यार सिंघ कौ खाई। फूल रहीं सगली बनराई॥
जीतौ बूड़े हारो लरै। गुरु परसादि पार उतरै।
दास कबीर कहै समझाई। केवल राम रहहु लिव लाई॥76॥

जब हम एकौ एक करि जानिया। तब लोग कहै दुख मानिया॥
हम अपतह अपनौ पति खोई। हमरै खोज परहु मति कोई॥
हम मंदे मंदे मन माहीं। सांझपाति काहु स्यौं नाहीं॥
पति मा अपति ताकी नहीं लाज। तब जानहुगे जब उधरैगा पाज॥
कहु कबीर पति हरि पखानु। सबर त्यागी भजु केवल रामु॥77॥

जल महि मीन माया के बेधे। दीपक पतंग माया के छेदे॥
काम मया कुंजर को ब्यापै। भुवंगम भुंग माया माहि खापै॥
माया ऐसी मोहनी भाई। जेते जीय तेते डहकाई॥
पंखी मृग माया महि राते। साकर माँखी अधिक संतापे॥
तुरे उष्ट माया महिं मेला। सिध चौरासी माया महि खेला॥
छिय जती माया के बंदा। भवै नाथु सूरज अरु चंदा॥
तपे रखीसर माया महि सूता। माया महि कास अरु पंच दूता॥
स्वान स्याल माया महि राता। बंतर चीते अरु सिंघाता॥
माजर गाडार अरु लूबरा। बिरख सूख माया महि परा॥
माया अंतर भीने देव। नागर इंद्रा अरु धरतेव॥
कहि कबीर जिसु उदर तिसु माया। तब छूटै जब साधु पाया॥78॥

जल है सूतक थल है सूतक सूतक आपति होई॥
जनमे सूतक मूए फुनि सूतक सूतक परज बिगोई॥
कहुरे पंडित कौन पबीता ऐसा ज्ञान जपहु मेरे मीता॥
नैनहु सूतक बैनहु सूतक लागै सूतक परै रसोई॥
ऊठत बैठत सूतक सूतक òवनी होई॥
फांसन की बिधि सब कोऊ जानै छूटन की इकु कोई॥
कहि कबीर राम रिदै बिचारै सूतक तिनैं न होई॥79॥

जहँ किछू अहा तहाँ किछु नाहीं पंच तत तह नाहीं॥
इड़ा पिंगला सुषमन बदे ते अवगुन कंत जाहीं॥
तागा तूटा गगन बिनसि गया तेरा बोलत कहा समाई।
एह संसा मौको अनदिन ब्यापै मोको कौन कहै समझाई॥
जह ब्रह्मांड पिंड तह नाहीं रचनहार तह नाहीं॥
जोड़नहारी सदा अतीता इह कहिये किसु माहीं॥
जोड़ी जुड़े न तोड़ी तूटै जब लग होइ बिनासी॥
काको ठाकुर काको सेवक को काहू के जासी॥
कहु कबीर लिव लागि रही है जहाँ बसै दिन राती।
वाका मर्म वोही पर जानै ओहु तौ सदा अबिनासी॥80॥