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कबीर_भाग-2: पदावली_परिशिष्ट-11

kabIr_Part - 1:sAkhI_list - 11
कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-11

अंतरि मैल जे तीरथ न्हावै तिसु बैकुंठ न जाना।
लोक पतीणे कछू न होवै नाहीं राम अयाना।

पूजहू राम एकु ही देवा साचा नावण गुरु की सेवा।

जल के मज्जन जे गति होवै नित नित मेडुक न्हावहि॥
जैसे मेडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि।

मनहु कठोर मरै बनारस नरक न बांच्या जाई।
हरि का संत मरै हाँड़वैत सगली सैन तराई॥

दिन सुरैनि बेद नहीं सासतर तहाँ बसै निरकारा।
कहि कबीर नर तिसहि धियावहु बावरिया संसारा॥1॥

अंधकार सुख कबहि न सोइहै। राजा रंक दोऊ मिलि रोइहै॥
जो पै रसना राम न कहिबो। उपजत बिनसत रोवंत रहिबो॥
जम देखिय तरवर की छाया। प्रान गये कछु बाकी माया॥
जस जंती महि जीव समाना। मुये मर्म को काकर जाना॥
हंसा सरबर काल सरीर। राम रसाइन पीउ रे कबीर॥2॥

अग्नि न दहै पवन नहीं गमनै तस्कर नेरि न आवै।
राम नाम धन करि संचौनी सो धन कतही न जावै॥
हमारा धन माधव गोबिंद धरनधर इहै सार धन कहियै।
जो सुख प्रभु गोबिंद की सेवा सो सुख राज न लहियै॥
इसु धन कारण सिव सनकादिक खोजत भये उदासी।
मन मुकुंद जिह्ना नारायण परै न जम की फाँसी॥
निज धन ज्ञान भगति गुरु दीनी तासु सुमति मन लागी।
जलत अंग थंभि मन धावत भरम बंधन भौ भागी॥
कहै कबीर मदन के माते हिरदै देखु बिचारी।
तुम घर लाख कोटि अस्व हस्ती हम घर एक मुरारी॥3॥

अचरज एक सुनहु रे पंडिया अब किछु कहन न जाई।
सुर नर गन गंध्रब जिन मोहे त्रिभुवन मेखलि लाई।
राजा राम अनहद किंगुरी बाजै जाकी दृष्टि नाद लव लागै॥
भाठी गगन सिडिया अरु चूंडिया कनक कलस इक पाया॥
तिस महि धार चुए अति निर्मल रस महि रस न चुआया।
एक जु बात अनूप बनी है पवन पियाला साजिया॥
तीन भवन महि एको जागी कहहु कवन है राजा॥
ऐसे ज्ञान प्रगट्या पुरुषोत्तम कहु कबीर रंगराता।
और दुनी सब भरमि भुलाना मन राम रसाइन माता॥4॥

अनभौ कि नैन देखिया बैरागी अड़े।
बिनु भय अनभौ होइ वणाँ हंबै।
सहुह दूरि देखैं ताभौ पावै बैरागी अड़े।
हुक्मै बूझै न निर्भऊ होइ न बेणा हंबै॥
हरि पाखंड न कीजई बैरागी अड़ै।
पाखंडि रता सब लोक बणाँ हंबै॥
तृष्णा पास न छोड़ई बैरागी अड़े।
ममता जाल्या पिंड बणाँ हंबै॥
चिंता जाल तन जालिया बैरागी अड़े।
जे मन मिरतक होइ वणा हंबै॥
सत गुरु बिन वैराग न होवई बैरागी अड़े।
जे लोचै सब कोई बणां हंबै॥
कर्म होवे सतगुरु मिलै बैरागी अड़े।
सहजै पावै सोइ बणा हंबै॥
कब कबीर इक बैरागी अड़े।
मौको भव जल पारि उतारि बड़ा हंबै॥5॥

अब मौको भये राजा राम सहाई । जनम मरन कटि परम गति पाई।
साधू संगति दियो रलाइ । पंच दूत ते लियो छड़ाइ॥
अमृत नाम जपौ जप रसना । अमोल दास करि लीनो अपना॥
सति गुरु कीनों पर उपकारू । काढ़ि लीन सागर संसारू॥
चरन कमल स्यों लागी प्रीति । गोबिंद बसै निता नित चीति॥
माया तपति बुझ्या अग्यारू । मन संतोष नाम आधारू॥
जल थल पूरि रहै प्रभु स्वामी । जत पेखो तत अंतर्यामी॥
अपनी भगति आपही दृढ़ाई । पूरब लिखतु गिल्या मेरे भाई॥
जिसु कृपा करै तिसु पूरन साज । कबीर को स्वामी गरीब निवाज॥6॥

अब मोहि जलत राम जल पाइया । राम उदक तन जलत बुझाइया॥
जेहि पावक सुर नर है जारे । राम उदक जन जलत उबारे॥
मन मारन कारन बन जाइयै । सो जल बिन भगवंत न पाइयै॥
जेहि पावक सुर नर है जारे । राम उदक जन जलत उबारे॥
भवसागर सुखसागर माहीं । पीव रहे जल निखूटत नाहीं॥
कहि कबीर भजु सारिंगपानी । राम उदक मेरी तिषा बुझानी॥7॥


अमल सिरानी लेखा देना । आये कठिन दूत जम लेना॥
क्या तै खटिया कहा गवाया । चलहु सिताब दिवान बुलाया॥
चलु दरहाल दिवान बुलाया । हरि फुर्मान दरगह का आया॥
करौ अरदास गाव किछु बाकी । लेउ निबेर आज की राती॥
किछू भी खर्च तुम्हारा सारौ । सुबह निवाज सराइ गुजारौ॥
साधु संग जाकौ हरि रंग लागा । धन धन सो जन पुरुष सभागा॥
ईत ऊत जन सदा सुहेले । जनम पदारथ जीति अमोले॥
जागत सोया जन्म गंवाया । माल धन जोर्‌या भया पराया॥
कहु कबीर तेई नर भूले । खसम बिसारि माटी संग रूलें॥8॥


अल्लह एकु मसीति बसतु है अवर मुलकु किसु केरा।
हिंदू मूरति नाम निवासी दुहमति तत्तु न हेरा॥

अल्लह राम जीउ तेरी नाई। तू करीमह राम तिसाई॥

दक्खन देस हरी का बासा पच्छिम अलह मुकामा।
दिल महि खोजि दिलै दिल खोजहु एही ठौर मुकामा॥

ब्रह्म न ज्ञान करहि चौबीसा काजी महरम जाना॥
ग्यारह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना॥

कहाउड़ीसे मज्जन कियाँ क्या मसीत सिर नायें॥
दिल महि कपट निवाज गुजारै क्या हज काबै जायें॥

एते औरत मरदा साजै ये सब रूप तुमारे॥
कबीर पूंगरा राम अलह का सब गुरु पीर हमारे॥

कहत कबीर सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना।
केवल नाम जपहु रे प्रानी तबही निहचै तरना॥9॥

अवतरि आइ कहा तुम कीना । राम को नाम न कबहूँ लीना॥
राम न जपहुँ कवन भनि लागे । मरि जैबे को क्या करहु अभागे॥
दुख सुख करिकै कुटंब जिवाया । मरती बार इकसर दुख पाया॥
कुंठ गहन तब कर न पुकारा । कहि कबीर आगे ते न सभारा॥10॥


अवर मुये क्या सोग करीजै । तौ कीजै जो आपन जीजै॥
मैं न मरौ मरिबो संसारा । अब मोहि मिल्यो है जियावनहारा॥
या देही परमल महकंदा । ता सुख बिसरे परमानंदा॥
कुअटा एकु पंच पनिहारी । टूटी लाजु भरैं मतिहारी॥
कहु कबीर इकु बुद्धि बिचारी । नाउ कुअटा ना पनिहारी॥11॥

अव्वल अल्लह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे॥
एक नूर के सब जन उपज्या कौन भले को मंदे॥

लोगा भरमि न भूलहु भाई।
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूर रह्यो सब ठाई।
माटी एक अनेक भाँति करि साजी साजनहारे॥
ना कछु पोच माटी के मांणे, ना कछु पोच कुंभारे॥
सब महि सच्च एको सोई तिसका किया सब किछु होई॥
हुकम पछानै सु एको जानै बंदा कहियै सोई॥
अल्लह अलख न जाई लखिया गुरु गुड़ दीना मीठा॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सर्व निरंजन डीठा॥12॥

अस्थावर जंगम कीट पतंगा। अनेक जनम कीये बहुरंगा॥
ऐसे घर हम बहुत बसाये। जब हम राम गर्भ होइ आये॥
जोगी जपी तपी ब्रह्मचारी। कबहु राजा छत्रापति कबहु भेखारी॥
साकत मरहि संत जन जी वहि। राम रसायन रसना पीवहि॥
कहु कबीर प्रभु किरपा कीजै। हारि परै अब पूरा दीजै॥13॥

अहि निसि नाम एक जौ जागै। केतक सिद्ध भये लव लागै॥
साधक सिद्ध सकल मुनि हारे। एकै नाम कलपतरु तारे॥
जो हरि हरे सु होहि न आना। कहि कबीर राम नाम पछाना॥14॥

आकास गगन पाताल गगन है चहु दिसि गगन रहाइले।
आनंद मूल सदा पुरुषोत्तम घट बिनसै गगन न जाइलै॥
मोहि बैराग भयो इह जीउ आइ कहाँ गयो।
पंच तत्व मिलि काया कीनों तत्व कहां ते कीन रे॥
कर्मबद्ध तुम जीव कहत हौ कर्महि किन जीउ दीन रे॥
हरि महि तनु है तनु महि हरि है सर्व निरंतर सोइ रे॥
कहि कबीर राम नाम न छोड़ो सहज होइ सु होइ रे॥15॥


अगम दुर्गम गढ़ रचियो बास। जामहि जोति करै परगास॥
बिजली चमकै होइ अनंद। जिह पोड़े प्रभु बाल गुबिंद॥
इहु जीउ राम नाम लव लागै। जरा मरन छूटै भ्रम भागै॥
अबरन बरन स्यों मन ही प्रीति। हौ महि गायत गावहिं गीति॥
अनहद सबद होत झनकार। जिहँ पौड़े प्रभु श्रीगोपाल॥
खंडल मंडल मंडल मंडा। त्रिय अस्थान तोनि तिय खंडा॥
अगम अगोचर रह्या अभ्यंत। पार न पावै कौ धरनीधर मंत॥
कदली पुहुप धूप परगास। रज पंकज महि लियो निवास॥
द्वादस दल अभ्यंतर मत। जहँ पौड़े श्रीकवलाकंत॥
अरध उरध मुख लागो कास। सुन्न मंडल महि करि परगांसु॥
ऊहाँ सूरज नाहीं चंद। आदि निरंजन करै अनंद॥
सो ब्रह्मंडि पिंड सो जानू। मानसरोवर करि स्नानू॥
सोहं सो जाकहुँ है जाप। जाको लिपत न होइ पुन्न अरु पाप॥
अबरन बरन धाम नहिं छाम। अबरन पाइयै गुंरु की साम॥
टारी न टरै आवै न जाइ। सुन्न सहज महि रह्या समाइ॥
मन मद्धे जाने जे कोइ। जो बोलै सो आपै होइ॥
जोति मंत्रि मनि अस्थिर करै। कहि कबीर सो प्रानी तरै॥16॥


आपे पावक आपे पवना। जारै खसम त राखै कवना।
राम जपतु तनु जरि किन जाइ। राम नाम चित रह्या समाइ॥
काको जरै काहि होइ हानि। नटवर खेलै सारिंगपानि॥
कहु कबीर अक्खर दुइ भाखि। होइगा खसम त लेइगा राखि॥17॥

आस पास घन तुरसी का बिरवा मांझ बनारस गाऊँ रे।
वाका सरूप देखि मोहीं ग्वारिन मोकौ छाड़ि न आउ न जाहुरे॥
तोहि चरन मन लागी। सारिंगधर सो मिलै जो बड़ भागी॥
वृंदावन मन हरन मनोहर कृष्ण चरावत गाऊँ रे॥
जाका ठाकुर तुही सारिंगधर मोहि कबीरा नाऊँ रे॥18॥

इंद्रलोक सिवलोकै जैबो। ओछे तप कर बाहरि ऐबो॥
क्या मांगी किछु थिय नाहीं। राम नाम राखु मन माहीं॥
सोभा राज विभव बड़ि पाई। अंत न काहू संग सहाई॥
पुत्र कलत्रा लक्ष्मी माया। इनते कछु कौने सुख पाया॥
कहत कबीर अवर नहिं कामा। हमारे मन धन राम को नामा॥19॥

इक तु पतरि भरि उरकट कुकरट इक तू पतरि भरि पानी॥
आस पास पंच जोगिया बैठे बीच नकटि देरानी॥
नकटी को ठनगन बाड़ाडूं किनहिं बिबेकी काटी तूं॥
सकल माहि नकटी का बासा सकल मारिऔ हेरी॥
सकलिया की हौ बहिन भानजी जिनहि बरी तिसु चेरी॥
हमरो भर्ता बड़ो विवेकी आपे संत कहावै॥
आहु हमारे माथे काइमु और हमरै निकट न आवै॥
नाकहु काटी कानहु काटी कूटि कै डारीं॥
कहु कबीर संतन की बैरनि तीनि लोक की प्यारी॥20॥

कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-10

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कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-10

जहँ अनभै तहँ भौ नहीं जहँ भै तहं हरि नाहिं।
कह्यौ कबीर बिचारिकै संत सुनहु मन माँहि॥181॥

जोरी किये जुलुम है कहता नाउ हलाल।
दफतर लेखा माडिये तब होइगौ कौन हवाल॥182॥

ढूँढत डोले अंध गति अरु चीनत नाहीं अंत।
कहि नामा क्यों पाइयै बिन भगतई भगवंत॥183॥

नीचे लोइन कर रहौ जे साजन घट माँहि।
सब रस खेलो पीव सौ कियो लखावौ नाहिं॥184॥

बूड़ा बंस कबीर का उपज्यो पूत कमाल।
हरि का सिमरन छाड़िकै घर ले आया माल॥185॥

मारग मोती बीथरे अंधा निकस्यो आइ।
जोति बिना जगदीस की जगत उलंघे जाइ॥186॥

राम पदारथ पाइ कै कबिरा गाँठि न खोल।
नहीं पहन नहीं पारखू नहीं गाहक नहीं मोल॥187॥

सेख सबूरी बाहरा क्या हज काबै जाइ।
जाका दिल साबत नहीं ताको कहाँ खुदाइ॥188॥

सुनु सखी पिउ महि जिउ बसै जिउ महिबसै कि पीउ।
जीव पीउ बूझौ नहीं घट महि जीउ की पीउ॥189॥

हरि है खांडू रे तुमहि बिखरी हाथों चूनी न जाइ।
कहि कबीर गुरु भली बुझाई चीटीं होइ के खाइ॥190॥

गगन दमामा बाजिया परो निसानै घाउ।
खेत जु मारो सूरमा जब जूझन को दाउ॥191॥

सूरा सो पहिचानिये जु लरै दीन के हेत।
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहुँ न छाड़ै खेत॥192॥

कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-9

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कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-9

कबीर सूख न एह जुग करहि जु बहुतैं मीत।
जो चित राखहि एक स्यों ते सुख पावहिं नीत॥161॥

कबीर सूरज चाद्दद कै उरय भई सब देह।
गुरु गोबिंद के बिन मिले पलटि भई सब खेह॥162॥

कबीर सोई कुल भलो जा कुल हरि को दासु।
जिह कुल दासु न ऊपजे सो कुल ढाकु पलासु॥163॥

कबीर सोई मारिये जिहि मूये सुख होइ।
भलो भलो सब कोइ कहै बुरो न मानै कोइ॥164॥

कबीर सोइ मुख धन्नि है जा मुख कहिये राम।
देही किसकी बापुरी पवित्रा होइगो ग्राम॥165॥

हंस उड़îौ तनु गाड़िगो सोझाई सैनाह।
अजहूँ जीउ न छाड़ई रंकांई नैनाह॥166॥

हज काबे हौं जाइया आगे मिल्या खुदाइ।
साईं मुझस्यो लर पर्‌या तुझै किन फुरमाई गाइ॥167॥

हरदी पीर तनु हरे चून चिन्ह न रहाइ।
बलिहारी इहि प्रीति कौ जिह जाति बरन कुल जाइ॥168॥

हरि को सिमरन छाड़िकै पाल्यो बहुत कुंटुब।
धंधा करता रहि गया भाई रहा न बंधु॥169॥

हरि का सिमरन छाड़िकै राति जगावन जाइ।
सर्पनि होइकै औतरे जाये अपने खाइ॥170॥

हरि का सिमरन छाड़िकै अहोई राखे नारि।
गदही होइ कै औतरै भारु सहै मन चारि॥171॥

हरि का सिमरन जो करै सो सुखिया संसारी।
इत उत कतहु न डोलई जस राखै सिरजनहारि॥172॥

हाड़ जरे ज्यों लाकरी केस जरे ज्यों घासु।
सब जग जरता देखिकै भयो कबीर उदासु॥173॥

है गै बाहन सघन घन छत्रापती की नारि।
तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनहारि॥174॥

है गै बाहन सघन घन लाख धजा फहराइ।
या सुख तै भिक्खा भली जौ हरि सिमरन दिन जाइ॥175॥

जहाँ ज्ञान तहँ धर्म है जहाँ झूठ तहद्द पाप।
जहाँ लाभ तहद्द काल है जहाँ खिमा तहँ आप॥176॥

कबीरा तुही कबीरू तू तेरो नाउ कबीर।
रात रतन तब पाइयै जो पहिले तजहिं सरीर॥177॥

कबीरा धूर सकेल कै पुरिया बाँधी देह।
दिवस चारि को पेखना अंत खेह की खेह॥178॥

कबीरा हमरा कोइ नहीं हम किसहू के नाहि।
जिन यहु रचन रचाइया तितहीं माहिं समाहिं॥179॥

कोई लरका बेचई लरकी बेचै कोइ।
साँझा करे कबीर स्यों हरि संग बनज करेइ॥180॥

कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-8

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कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-8

कबीर संगत साध की दिन दिन दूना हेतु।
साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु॥141॥

संत की गैल न छांड़ियै मारगि लागा जाउ।
पेखत ही पुन्नीत होइ भेटत जपियै नाउ॥142॥

संतन की झुरिया भली भठी कुसत्ती गाँउ।
आगि लगै तिह धोलहरि जिह नाहीं हरि को नाँउ॥143॥

संत मुये क्या रोइयै जो अपने गृह जाय।
रोवहु साकत बापुरो जू हाटै हाट बिकाय॥144॥

कबीर सति गुरु सूरमे बाह्या बान जु एकु।
लागत की भुइ गिरि पर्‌या परा कलेजे छेकु॥145॥

कबीर सब जग हौं फिरो मांदलु कंध चढ़ाइ।
कोई काहू को नहीं सब देखी ठोक बजाइ॥146॥

कबीर सब ते हम बुरे हम तजि भलो सब कोइ।
जिन ऐसा करि बूझिया मीतु हमारा सोइ॥147॥

कबीर समुंद न छाड़ियै जौ अति खारो होइ।
पोखरि पोखरि ढूँढते भली न कहियै कोइ॥148॥

कबीर सेवा की दुइ भले एक संतु इकु राम।
राम जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु॥149॥

साँचा सति गुरु मैं मिल्या सबद जु बाह्या एकु।
लागत ही भुइ मिलि गया पर्‌या कलेजे छेकु॥150॥

कबीर साकत ऐसा है जैसी लसन की खानि।
कोने बैठे खाइये परगत होइ निदान॥151॥

साकत संगु न कीजियै दूरहि जइये भागि।
बासन करा परसियै तउ कछु लागै दागु॥152॥

साद्दचा सतिगुरु क्या करै जो सिक्खा माही चूक।
अंधे एक न लागई ज्यों बासु बजाइयै फूँकि॥153॥

साधू की संगति रहौ जौ की भूसी खाउ।
होनहार सो होइहै साकत संगि न जाउ॥154॥

साधु को मिलने जाइये साधु न लीजै कोइ।
पाछे पाउं न दीजियो आगै होइ सो होइ॥155॥

साधू संग परापति लिखिया होइ लिलाट।
मुक्ति पदारथ पाइयै ठाकन अवघट घाट॥156॥

सारी सिरजनहार की जाने नाहीं कोइ।
कै जानै आपन धनी कै दासु दिवानी होइ॥157॥

सिखि साखा बहुतै किये केसी कियो न मीतु।
चले थे हरि मिलन को बीचै अटको चीतु॥158॥

सुपने हू बरड़ाइकै जिह मुख निकसै राम।
ताके पा की पानही मेरे तन को चाम॥159॥

सुरग नरक ते मैं रह्यौ सति गुरु के परसादि।
चरन कमल की मौज महि रहौ अंति अरु आदि॥160॥

कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-7

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कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-7

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु।
आदि जगादि सगस भगत ताकौ सब बिश्राम॥121॥

जम का ठेगा बुरा है ओह नहिं सहिया जाइ।
एक जु साधु मोहि मिलो तिन लीया अंचल लाइ॥122॥

कबीर यह चेतानी मत सह सारहि जाइ।
पाछै भोग जु भोगवै तिनकी गुड़ लै खाइ॥123॥

रस को गाढ़ो चूसिये गुन को मरिये रोइ।
अवमुन धारै मानसै भलो न कहिये कोइ॥124॥

कबीर राम न चेतिये जरा पहूँच्यौ आइ।
लागी मंदर द्वारि ते अब थ्या कादîो जाइ॥125॥

कबीर राम न चेतियो फिरिया लालच माहि।
पाप करंता मरि गया औध पुजी खिन माहि॥126॥

कबीर राम न छोड़िये तन धन जाइ त जाउ।
चरन कमल चित बोधिया रामहि नाम समाउ॥127॥

कबीर राम न ध्याइयो मोटी लागी खोरि।
काया हाड़ी काठ की ना ओह चढ़े बहोरि॥128॥

राम कहना महि भेंदु है तामहिं एकु बिचारु।
सोइ राम सबै कहहिं सोई कौतुकहारु॥129॥

कबीर राम मैं राम कहु कहिबे माहि बिबेक।
एक अनेकै मिलि गयां एक समाना एक॥130॥

रामरतन मुख कोथरी पारख आगै भोलि।
कोइ आइ मिलैगो गाहकी लेगी महँगे मोलि॥131॥

लागी प्रीति सुजान स्यों बरजै लोगु अजानु।
तास्यो टूटी क्यों बनै जाके जीय परानु॥132॥

बांसु बढ़ाई बूड़िया यों मत डूबहु कोइ।
चंदन कै निकटें बसे बांसु सुगंध न होइ॥133॥

कबीर बिकारहु चितवते झूठे करंते आस।
मनोरथ कोइ न पूरियो चाले ऊठि निरास॥134॥

बिरहु भुअंगम मन बसै मत्तु न मानै कोइ।
राम बियोगी ना जियै जियै त बौरा होइ॥135॥

बैदु कहै हौं ही भला दारू मेरे बस्सि।
इह तौ बस्तु गोपाल की जब भावै ले खस्सि॥136॥

वैष्णव की कुकरि भली साकत की बुरी माइ।
ओह सुनहिं हर नाम जस उह पाप बिसाहन जाइ॥137॥

वैष्णव हुआ त क्या भया माला मेली चारि।
बाहर कंचनवा रहा भीतरि भरी भंगारि॥138॥

कबीर संसा दूरि करु कागह हेरु बिहाउ।
बावन अक्खर सोधि कै हरि चरनों चित लाउ॥139॥

संगति करियै साध की अंति करै निर्बाहु।
साकत संगु न कीजिये जाते होइ बिनाहु॥140॥

कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-6

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कबीर_भाग-1: साखी_परिशिष्ट-6

भाँग माछुली सुरापान जो जो प्रानी खाहि।
तीरथ बरत नेम किये ते सबै रसातल जांहि॥101॥

भार पराई सिर धरै चलियो चाहै बाट।
अपने भारहि ना डरै आगै औघट घाठ॥102॥

कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर।
पाछै लागो हरि फिरहिं कहत कबीर कबीर॥103॥

कबीर मन पंखी भयो उड़ि उड़ि दह दिसि जाइ।
जो जैसी संगति मिलै सो तैसी फल खाइ॥104॥

कबीर मन मूड्या नहीं केस मुड़ाये काइ।
जो किछु किया सो मन किया मुंडामुंड अजाइ॥105॥

मया तजी तो क्या भया जौ मानु तज्यो नहीं जाइ।
मान मुनी मुनिवर गले मानु सबै को खाइ॥106॥

कबीर महदी करि घालिया आपु पिसाइ पिसाइ।
तैसेई बात न पूछियै कबहु न लाई पाइ॥107॥

माई मूढहू तिहि गुरु जाते भरम न जाइ।
आप डूबे चहु बेद महि चेले दिये बहाइ॥108॥

माटी के हम पूतरे मानस राख्यो नाउ।
चारि दिवस के पाहुने बड़ बड़ रूधहि ठाउ॥109॥

मानस जनम दुर्लभ है होइ न बारै बारि।
जौ बन फल पाके भुइ गिरहिं बहुरि न लागै डारि॥110॥

कबीर माया डोलनी पवन झकोलनहारु।
संतहु माखन खाइया छाछि पियै संसारु॥111॥

कबीर माया डोलनी पवन बहै हिवधार।
जिन बिलोया तिन पाइया अवन बिलोवनहार॥112॥

कबीर माया चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि।
एकु कबीरा ना मुसै जिन कीनी बारह बाटि॥113॥

मारी मरौ कुसंग की केले निकटि जु बेरि।
उह झूलै उह चीरिये नाकत संगु न हेरि॥114॥

मारे बहुत पुकारिया पीर पुकारै और।
लागी चोट मरम्म की रह्यौ कबीरा ठौर॥115॥

मुकति दुबारा संकुरा राई दसएँ भाइ।
मन तौ मंगल होइ रह्यौ निकस्यो क्यौं कै जाइ॥116॥

मुल्ला मुनारे क्या चढ़हि साँई न बहरा होइ।
जाँ कारन बाँग देहि दिल ही भीतरि जोइ॥117॥

मुहि मरने का चाउ है मरौं तौ हरि के द्वार।
मत हरि पूछै को है परा हमारै बार॥118॥

कबीर मेरी जाति की सब कोइ हंसनेहारु।
बलिहारी इस जाति कौ जिह जपियो सिरजनहारु॥119॥

कबीर मेरी बुद्धि को जसु न करै तिसकार।
जिन यह जमुआ सिरजिआ सु जपिया परबदिगार॥120॥